Wednesday, July 30, 2014

किस लिए है ?

ये झरनों की झर-झर,कुछ-कुछ कहती सी क्यूँ है?
ये सब नदियां भी कल-कल मचलतीं सी क्यूँ हैं?
यूँ बीहड़ सी राहों और रोड़ों संग टकराते-बलखाते,
क्यूँ गंतव्य से मिलने की हैं,अजब-विकल चाहतें?

फूलों का डोल-डोल खिलना आखिर है क्यूँ ?
यूँ रंगों का बौराना,बिखरना आखिर है क्यूँ?
यूँ आकर्षित करना,और ये खुशबुएँ फैलाना ,
यूँ भवरों को आखिर क्यों रह-रह के रिझाना ?

ये सूरज की किरणों की नित गुनगुनी सी रीत ,
ये पंछियों का कलरव,सुबह का मधुर संगीत ,
ये सूरज का यूँ अद्भुत,किसके लिए है प्रयास?
क्यूँ धरा को रिझाने की है अनकही सी आस?

तमाम रोज कोशिशें हैं,तमाम रोज हैं ये बातें,
रोज मीठी खिलाहटें हैं,और बहुत सारे हैं वादे,
वादों में उलझाना और ये बहलाना,फुसलाना,
आखिर किस लिए क्यों और किसके लिए है?

यूँ मौसमों का बदलना यूँ प्रकृति का निखरना,
कभी गर्मी की उलझन कभी ठंड का सिहरना,
कभी बरखा की टिप-टिप और रिमझिम फुहार,
जादुई मौसमों से गूंजती सी तिलस्मयी पुकार।

कुदरत के ये अजब राज तो,ये कुदरत ही जाने,
हर किसी को चाहिए पूर्णता,जाने या अनजाने,
ये तो महज साजिशें हैं महज प्रेम के हैं बहाने,
ताकि इस धरा पे गूंजें सदा ही जीवन के तराने।

                                                                        ( जयश्री वर्मा )






Monday, July 21, 2014

मैं चाहती हूँ


मैं अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में उड़ान चाहती हूँ,
जन्मी तो माँ से इक बेटे के सदृश्य ही,
पर हक़ और ख़ुशी का सैलाब चाहती हूँ, 
जो खुश हो बढ़ के बाहों में ले-ले मुझे,
ऐसी बाबुल की स्नेहिल बाँह चाहती हूँ।  

पोषित हो सकूँ मैं सुरक्षित छाया के तले,
घर की वो अपनत्वभरी पनाह चाहती हूँ,
बड़ी होके जब पढ़ने को निकलूं मैं बाहर,
खतरा हो न कोई,और न कैसा भी हो डर,
जहाँ पे बेख़ौफ़ होकर पंख फैला सकूँ मैं,
ऐसा अपने लिए भी मैं आसमां चाहती हूँ। 

शादी के बंधन में बंधकर के जब मैं जाऊं,
वहाँ अपने हिस्से का अपनत्व भी मैं पाऊं,
भूल पिछला अंगना,मैं नव घर को सहेजूँ,
नित विकास,उन्नति की नव राहें मैं खोजूं,
कर्तव्यों के निर्वहन के बदले में बस मैं तो,
परिवार और पिया से बस प्यार चाहती हूँ।

अपने लिए ही नहीं इस समाज की खातिर,
सुरक्षित माहौल हो हैवानियत न हो शातिर,
नारी ही तो है रीढ़ इस सामाजिक ढाँचे की,
न बिगाड़ो यूँ सूरत इस दैवीय से साँचे की,
ये छोटी सी इच्छा तो बिलकुल है जायज़, 
हर पुरुष की निगाह में सम्मान चाहती हूँ।

मुझको भी मौकों की उतनी ही दरकार है,
शिक्षा,परवरिश,प्यार पे पूरा अधिकार है,
नारी के वजूद बिन तो नहीं समाज है पूरक,
नारी,पुरुष दोनों हैं एक दूसरे के अनुपूरक,
बेटे-बेटी को गर जो समान नहीं समझेंगे,
हम कुदरती असंतुलन के गुनहगार होंगे।

बेटा ही है पहचान,वो तो है वंश बेल हमारा,
बेटी तो किसी पराए घर,का बनेगी सहारा,
इस फ़र्क करने का मैं परिणाम जानती हूँ,
परिवेश के लिए मैं स्वस्थ विचार चाहती हूँ,
मैं तो बस अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में इक उड़ान चाहती हूँ।

                                                  -  जयश्री वर्मा



Monday, July 7, 2014

अंग दान,स्वयं दान,महा दान

हर सुबह की साँझ है और हर रात का है सवेरा,
ये जो जन्म पाया है हमने,चाहे मेरा हो या तेरा,
आना भी रुलाई संग,और जाना भी रुलाई संग,
इसी बीच भरने हैं जीवन के सुख-दुःख के रंग।

ये पाया जो शरीर,उसे चलाने के कुछ नियम हैं,
सार है सिर्फ मानवता,और जीना संग संयम है,
परिवार,रिश्तों को चलाने में है सर्वश्रेष्ठ दे डाला,
खुद की सलामती संग जग में स्नेह बुन डाला।

जीने के संग जब,जीवन अपनों के काम आये,
तो मृत्यु के उपरान्त ये शरीर,व्यर्थ में क्यों जाए?
अपने शरीर अंगों का,महत्व जरा कुछ समझो,
व्यर्थ न हो जाए ये तन,अंधविश्वास में न उलझो। 

ये लोक ही सत्य है,जीवन है साँसों की कहानी,
परलोक नहीं है कुछ भी,ये सब बातें हैं अंजानी,
यहीं जन्मा बढ़ा शरीर,अन्य लोक नहीं जाना है,
ये शरीर ही पहचान हमारी,ये यहीं छूट जाना है।

ये काया है कीमती कुछ तो करें इसका उपाय,
नष्ट क्यों करें इसे,क्यों न हम अमूल्य इसे बनाएं,
जीवित रहते हुए जब सारे ख़ास रिश्ते हैं निभाए,
इक रिश्ता है मानवता,क्यों न उसे भी निभाएं।

मौत के बाद,ये शरीर तो मिटटी में बदलना है,
गर मृत्यु के बाद भी,स्वयं को जीवित रखना है,
तो मजबूत करो खुद को,जीते जी लिख जाओ,
बस अंग दान,स्वयं दान,महा दान कर जाओ।

जीवन के बाद भी,जीने का है यह अनूठा एहसास,
आपका अंग नहीं हुआ व्यर्थ,है ज़रूरतमंद के पास,
गर आप मुझसे हैं सहमत तो,यह संकल्प उठाओ,
जागरूकता फैलाओ,स्वयं से अंगदान कर जाओ। 

                                                           - जयश्री वर्मा