Thursday, June 26, 2014

देखा जाएगा आखिर

आज उड़ चला दिल मेरा,न जाने किस ओर किस डगर,
मंजिल मिलेगी या नहीं,इक सवाल है पर फिर भी मगर,
चल दिया जो अनजानी राह पर,तो फिर लौटना कैसा ?
मंजिल आखिर मिलेगी ही,कभी न कभी,किसी मोड़ पर। 


उनकी इक ठहरती सी निगाह ने,समां कुछ ऐसा बाँधा है,
कि मेरे विचारों-ख्यालों ने,विश्वास ही कुछ ऐसा साधा है,
कि आखिरकार सूनी शाख पे भी,फूल कभी तो खिलता है,
जज़्बात की गर्मी से पत्थर भी,कभी न कभी पिघलता है।


जानता हूँ समाज की दीवार,बहुत कठोर है राह मुश्किल,
लेकिन जब ठान ही लिया तो,मान ही लूँगा अब दिल की,
मैं उनकी राहों के कांटे चुनकर,फूल बिछाऊंगा कुछ ऐसे,
निगाह रहमत की उठेगी उनकी,आखिर मुझपे न कैसे ?


आखिर तो सदियों से ज़माना,चला ही है इस राह पर ऐसे,
वर्ना पीढ़ियों का वजूद न होता,जीवन न बढ़ता धरा पे ऐसे,
मैं भी जो चल निकला हूँ,इन अनजानी अँधेरी सी राहों पर,
कभी तो छंटेगा अँधेरा,जीत जाएगी सुबह वीरानी रात पर।


इक अनदेखी अनचीन्ही सी डोर है,सिर्फ जिसका सहारा है,
दिल यूँ ही नहीं कहता-वही तो साथी,वही सनम तुम्हारा है,
मैं भी क्या बेकार में ही यूँ हाँ-ना की,संशयभरी बातें ले बैठा,
देखा जाएगा आखिर जो होगा,आगे जब मन में ठान बैठा।

                                                        ( जयश्री वर्मा )


 

Wednesday, June 18, 2014

सर्वस्व समर्पण

हारता सा यह मन,प्रिय आज मेरा ,
बन रही हूँ आज मैं कण्ठ-हार तेरा ।


भावातुर इस हृदय की भाव-सरिता ,
ऋतुओं की बनकर मैं आज कविता ।

मुक्ति छोड़ आज मैं बंधने को तत्पर ,
पाने को अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ।

श्यामल भाल की बिंदी का कौमार्य ,
यौवन-ताप के अछूते भार का सार ।

सृष्टि की गंध संग,अतृप्ति की तृप्ति ,
मौन के गुनगुनाते संगीत की वृष्टि ।

थरथराते कदम रूप की बहती धारा ,
अमर अदृश्य प्रेम की अदभुत कारा ।

कराने को पान यह जीवन रस अमृत ,
लुटाने को सर्वस्व अपना मैं उदधृत ।

चुप-चुप चंचल हो,यह विश्व समीर जब ,
अर्पण हो मेरा सब अस्तित्व तुझे तब ।

पाने को आतुर मैं तुम्हारे हृदय में शरण ,
हे नाथ!मेरा यह जीवन करो तुम वरण ।

जब कल के प्रभात का रवि मुस्कुराएगा ,
देने को मुझमें तब नव,कुछ न रह जाएगा ।

                                               ( जयश्री वर्मा )
 






Thursday, June 12, 2014

दोस्त - दोस्ती

दोस्त वो जो दोस्ती की हर रस्म निभा ले,
साथ दे सदा,दिल से अटूट बंधन बना ले,
आपकी उन्नति से जिसे खुशी मिले अपार,
आपकी खुशियों को जो अंतर्मन से सम्हाले।

आपके आंसुओं से द्रवित हों जिसकी निगाहें,
जो दुःख दर्द में आपको अपने सीने से लगा ले,
जो साथ न छोड़े चाहे हों लाख विपरीत हवाएं,
जो कठिनाइयों में आपको पर्वत सा सम्भाले।

दोस्त वो जिसको समझाने में वक्त न लगे ,
दोस्त वो जो चेहरा पढ़ दिल के हाल बता ले ,
दोस्त वो जिससे हर बात बेरोकटोक हो सके,
जो छोटी - छोटी बात का बतंगड़ न बना ले।

दोस्त नहीं मिला करते हैं हर किसी को दोस्तों,
मिले जो कोई दोस्त तो दोस्ती की रस्म निभा लें,
दोस्त हैं आपके आस-पास  भरे हुए,पर शर्त है ये -
कि आप खुद को दोस्ती की परिभाषा सिखा लें।

                                                                                                                   ( जयश्री वर्मा )

                                                       









Friday, June 6, 2014

सब याद है मुझे

मित्रों मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका " गृहशोभा " में प्रकाशित हुई है ,आप भी इसे पढ़ें।


कुछ-कुछ याद है मुझे,वो बीते वक्त की मीठी बातें, 
बेकाबू सी दिल की धड़कन,और वो सुवासित साँसें,
जीवन की जद्दोजहद के बीच,बेसाख्ता भागते हुए से,
तुमने कुछ कहा था,और मैंने उन लम्हों को बुना था।

कुछ मीठी सी सुर लहरियाँ थीं,तुमने जो गुनगुनाई थीं,
मेरे करीब जैसे बहुत से वादे,बहुत सी कसमें खाईं थीं,
जैसे बहुत सारे नज़ारे,बहुत सारी खिली सी बहारें थीं,
तुम्हारे कहे उन तमाम छंदों को,मैंने गीतों में सुना था।

कुछ सपने थे रंगीले-सजीले से,जो तुमने ही दिखाए थे,
हांथों में हाथ ले अपने जो तब,तुमने मुझे समझाए थे,
वो अटूट विश्वास और नयी आस में,रचे-बसे से सपने,
उन सपनों का रंग मेरी उन,जागती रातों में ढला था ।

कुछ नए रास्ते थे जो गुज़ारे थे,तुमने-हमने संग में,
क़दमों से कदम मिला सँवारे थे,तुमने-हमने संग में,
वो मौन रह कही गयी बहुत सारी बातें और किस्से,
उन रास्तों का अपनापन मेरी मंज़िलों में ढाला था।

ये धड़कनें भी एक थीं,और अपनी चाहतें भी एक थीं,
ईश्वर का संग था और,ज़माने की निगाहें भी नेक थीं,
इसी लिए तो आज हम साथ हैं,ऐ मेरे प्यारे हमसफ़र,
अब ज़िन्दगी हमारी है और,हमारे हैं सारे सांझ-सहर।

सब कुछ याद है वो बीते वक्त का,गुज़ारना चुपके,
शुरूआती उहापोह में बढ़ना और सम्हालना छुपके,
तुम्हारी इक नज़र पर,मेरे अरमानों का वो मचलना,
उन इशारों को मैंने,दिल की गहराइयों से गुना था।

                                                                                            ( जयश्री वर्मा )