Monday, April 8, 2013

बेबसी


वक्त के हाथों नचाये गए,हम बेबस से कारिंदे,
मन के बोझिल गाँवों बीच,उड़ते यादों के परिंदे,
तुम्हारी छवि की कुछ,अस्पष्ट सी फुसफुसाहट,
और प्रेमपगी बातों की,सुनाई देती चहचहाहट।

खींच ले गयी बाँध के मुझको मीठी सी यादों की डोर,
अपने गाँव की मिट्टी की,भीनी-भीनी खुशबू की ओर,
जहाँ मेड़ किनारे बैठे,हाथों में हाथ लिए मैं और तुम,
जहाँ हमने सपनों के बीज बोए,योजनाओं में रहे गुम।

कि कल को पल्लवित-पुष्पित होगा,हमारा ये प्यार,
कि कल खुशियों से भरा होगा,हमारा भी घर-संसार,
न जाने इस जीवन की,भाग-दौड़ में कहाँ और कब,
बिछड़े वो सपने,वादे,प्यार,इज़हार,जीत व हार सब।

तुम न जाने कैसी होगी,और मैं हूँ दूर शहर में यहाँ,
क्या करती और क्या कुछ सोचती रहती होगी वहाँ?
क्या पल-पल मेरी आहट का, इंतज़ार होगा तुम्हें?
क्या आज भी वो,कहा सुना सब याद होगा तुम्हें?

मैं तो यहाँ जैसे खो सा ही गया हूँ,भीड़-भरे शहर में,
बस दो वक्त की रोटी की,आपाधापी और घुटन में,
सोचता ही रह गया कि,अब मैं भी इतना कमाऊंगा,
कि तुम्हें वहां से लाकर,अपनी नई दुनिया बसाऊंगा।

दिल में तमन्ना और आँखों में,बस सपने ही रह गए,
वक्त की कठपुतली बन,हम सब अकेले ही सह गए,
न जुटा पाया कभी,तुम्हें अपने साथ लाने के लायक,
न कमा पाया यहाँ,अपनी दुनिया बसाने के लायक।

और अब जब बीत गए हैं,हमारे जीवन के इतने साल,
उम्र थक चली है,सफेद हो चले हैं ये मेरे सिर के बाल,
दिन बीत जाता है,साँझ ढलने पे फिर वही इक ख्याल,
पूछती हो तुम,कब ले जाओगे? बस इक यही सवाल।

मन में छटपटाहट है,कि और नहीं,बस अब लौट चलूँ,
उन्ही यादों के परिंदों की,उड़ानों के साथ,तुम्हारे पास,
तुम संग रोक लूं,इन जीवित बचे हुए,सपनों की सांस,
है मन में तो बस एक नज़र तुम्हें देख पाने की प्यास।


                                                         ( जयश्री वर्मा )

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