Saturday, March 23, 2013

न जाने कहाँ

तुम चले गए वहाँ, न जानूं मैं, कैसा,कौन सा सफर,
न जाने कैसी वो दुनिया,कैसे उसके शाम और सहर ?
बस कह दिया-चलता हूँ,कहा सुना सब माफ़ करना,
मैं हाथ पसारे ही रह गया,न कुछ कहना न सुनना। 


छूट गया मैं पीछे ही,तुम्हारी बहुत सी,यादों के सहारे,
रूठना-मनाना,वो अपनी बात रखना,वो बहाने सारे,
वो रंगों भरे दिन और वो अँधेरी,बहुत अपनों सी रातें,
तुम्हारे मेरे बीच,कही-अनकही,अनगिनत सी बातें।

पता नहीं क्यों ऐसा होता है,जब कभी किसी के लिए-
साँसें बेकल हों और मन कहे अब किसके लिए जियें,
कि छटपटाता हूँ मैं,अब तुम्हें कहीं से भी ढूंढ लाने को,
पर जानता हूँ कि,लोग जाते हैं वहां,कभी न आने को।

सत्य है जो भी आया यहाँ,वो इक न इक दिन जाता है,
इसीलिए तो शायद मनुष्य का,उस ईश्वर से नाता है,
कि अब भी सावन आएगा और बगिया भी महकेगी,
बेला और रात रानी भी तो अपने शबाब पे बहकेगी।

कि मेरी वीरान हो चुकी जिंदगी की कहानी भी चलेगी,
हर साल के मौसम में तुम्हारी रिक्तता के साथ ढलेगी,
इस शरीर के लिखे हुए,जीवन कर्म,तो करने ही होंगे,
बिन तुम्हारे,सूनी ही सही,रातों में ख्वाब भरने ही होंगे।
                                                                                            
                                                                                              ( जयश्री वर्मा )

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